मारक ग्रह किसी कहते है, बाधाक ग्रह किसी कहते है, ग्रहो की द्रष्टी, राशीओ की द्रष्टी, बारह राशीया, ग्रहोकी अवस्थाए, अस्त ग्रह के बारेमे, दैनिक फल केसे निकाले,सुदर्शन चक्र केसे बनाये आदी के बारेमे इस लेख मे बताया गया है। जो वांचको के ज्ञान मे वृद्धी करेगा।
आभार
भाव का विचार
कुंडलीके भाव विचार
1.पहला भाव:-
लग्न,परिवार,शिर,होरा,देह,रूप,वर्तमान समय,जन्म के बारेमे, स्वभाव,विवेक,शिल
2.दूसरा भाव:-
चेहरा, धन,विध्या,अपनी वस्तुए,खाने-पिने की वस्तुए, दायी आंख चिठ्ठि,बोलनेकी शक्ति, परिवार,संप्पति, बोली(बानी) सत्यअवम असत्य, जिव्हा, पड़ोसी,
3.तिसरा भाव:-
पराक्रम,विरता,हिम्मत,छाति,दाया कान,सेना, अपनी महेनत, छोटे भाइ – बहन,छोटी यात्राए, गुप्त शत्रु, गला, सांस की बिमारी।
4.चौथा भाव:-
घर,ह्रदय,खेत,मित्र,सवारी,माता,गाय,भेंस,सुगंधितद्रव्य,वस्त्र,जवेरात,सुख,अभ्यास,गाडी,जमीन,अचल संपति, ,फेफडे, छातिके उपरा का भाग, दटा हुवा धन
5.पंचम भाव:-
विध्या,संतान,प्रान,आत्मा,कर, मंत्री,पेट,बुद्धी,स्मृति, श्रृति, याददास,प्रेम,मांगलिक कार्य,मामा का घर।
6.छ्ठ्ठा भाव:-
रोग,बिमारी कमर,अस्त्र,चोर, घाव,शत्रु,युद्ध, ,बुरे कर्म पाप, भय,अपमान,स्पर्धात्मक परिक्षाए,छोटी छोटी चिंताए, कोर्ट के चक्कर, चिंताए, सेवाए(नोकरी),शोक, खट्टी डकार,
7.सातवा भाव:-
यह भाव पति या पत्नि,भागीदार,बस्ती,ह्रदय कई इच्छ, मेद,मार्ग,जनता,कामवासनाए,प्रत्यक्ष शत्रु, विवाह(शादी),रोजमरा का व्यवसाय,मृत्यु
8.आठवा भाव:-
आयु गुप्त इंद्रिया,सौभाग्य,छिद्र,मानशिक बिमारीया,अपमान,पराजय,बदनामी,मृत्य,अपवित्रता,सेवक,आकस्मिक धनलाभ, विदेशागमन, अचानक परिवर्तन ,विध्न, दुर्घटनाए,असाध्यरोग, विरासत,
9.नव्वभाव:-
यह भाव धर्म,पूजा,किए हुए कर्म,देव,जंघा,आचार्य,पिता,अपुत्र,उत्तम वंश,विदेश,तिर्थयात्राए,संन्यास,स्वप्न, शिक्षा
10.दशवा भाव:-
कर्म,विजय,व्यपार मै उच्चस्थान, दोनो घुटने, यश,यज्ञ,कार्य मे रुची, आचार-विचार, आजिविका के उपाय, कीसी भी प्रकार की सत्ता,गुन, कही जाने कआ कार्य, प्रतिष्ठा,रोजगारी
11.ग्यारवा भाव:-
लाभ,आवक,पिंडी,कल्याण,प्रसंसा, अने का कार्य, वैभव, बडे भाइ-बहन, बायाकान, मनो:कामना की पूर्ति, इपल्बधिया
12.बारवा भाव:-
बाइ आंख,असप्ताला मे भरति. देनो पेर,दु:ख, बंधन,पाप,शयन,गुप्त संबंध, विदेश, बडी यात्राए
नोंध:-पहले भावमे जो राशी हो उसे लग्न और उसके स्वामी को लग्नेश कहते है, वेसे ही दुसरे भावके धन,कुंटंबादि भाव कहते है और उसके स्वामी को द्रित्येश,धनेश आदि कहते है। इस तरह सभी भावो के स्वामी के बारेमे जानना चाहिए
मारक ग्रह
मारकग्रह
सारक और मारक ग्रह के बारेमे
सारकग्रह:-
जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण के स्वामी बनते है हो सारका कहलाता है।
मारकग्रह:-
> जो ग्रह केवल ६-८-१२ इस भाव के स्वामी बनते है उसे मारककहते है,
સારક ગ્રહ
(1) जो ग्रह केवल केद्र या त्रिकोण का स्वामी बनते सारक ग्रह यदि शुभ स्थानोमे बेठे हो तब बहुत शुभ फलदाइ है,। तटस्थ स्थानमे होने से शुभफल दाइ है और अशुभ स्थान मे रहने से शुभफल नही दे पाता है।
(2) केंद्र या त्रिकोण हो ओर उसके अलावा अशुभ स्थान का मालिक बनता जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण के स्वामी होने के साथ-साथ अशुभ स्थानों के स्वामी भी हैं, लेकिन कारक माने जाते हैं, यदि वे शुभ स्थानों में हैं, तो वे अच्छे परिणाम देते हैं। यदि यह तटस्थ स्थान पर हो तो यह सामान्य फल देता है और यदि यह अशुभ स्थान पर होता है तो यह मारक फल देता है।
सारक ग्रह भंग योग
सारक ग्रह शुभ फल देता है लेकिन यदि यह सारक ग्रह भंग हो जाए तो यह सारकभी मारक बन जाता है और अशुभ फल देता है।
(1) सारकग्रह अस्त हो और सूर्य मारकग्रह मारकग्रह बन जाता है।
सारकग्रह भंगयोग का भी भंगयोग
कइबार एसाभी होता है सारक ग्रह मारकग्रह की एक तरफी द्रष्टी मै हो और अन्य सारकग्रह इस सारकाग्रह की द्रष्टी से बल देता हो फीरभी वह सारकग्रह मारका ही बनता है।
मारकग्रह खुद कोइ और सारकग्रह की एक तरफ से द्रष्टी मे हो और मारकग्रह द्रष्टीथी बल देता न हो तब सारक बना जाता है।
एसे संजोगो मै इस मारकग्रह अन्य सारकग्रह की द्रष्टी लेकर बन शकता नही है इस लिए सारकग्रह का भंगा का भंग योग बन जाता है।
मारकग्रह
(1) मारकग्रह शुभा स्थनोमे रहने से अशुभ फल दे नही शकता।
(2) मारकग्रह तटस्थ स्थानमे हो भीरभी साधारण अशुभफल देताहै।
(3) मारकग्रह अशुभ स्थान मए रहने से खुब अशुभ फल देता है।
(4) मारकग्रह अपनेही कारक स्थाना मे देखता हो, तब वह स्थान शुभ फल देता है।
मारक ग्रह भंगयोग
मारका ग्रह अशुभ देता है लेकिन जब वह मारकगंभ हो तब वह सारक बना जाता है और वह शुभफल दाइ होता हऐ।
(1) मारकग्रह जब सारका ग्रहकी एकतरफा द्र्ष्टी मिलती हो और कोइ अन्य मारकग्रह और मारग्रह की द्रष्टी उसको बल दे रहे हो तब वह तटस्थ बन जाता है (ना मारक या सारक)।
(2) मारकग्रह अस्तहो और सूर्य सारक हो तब मारकग्रह सारक बनाता है।
(3) मारकग्रह काका स्थाना मे रहने से सारकग्रह बन जाता हऐ।
(4) मारकग्रह ऊच्च्स्थ हो तब मारकग्रह सारक बनता है(अपवाद के रूप मे शनि है)।.
(5) ऊच्च का मारकग्रह अशुभ स्थानमे हो तब मारकग्रह सारका बना जाता है (अपवाद के रूपमे मंगल है)।
(5) उच्च का मारकग्रह के साथ द्रष्टी से कीसी अन्य मारकग्रह का संबंध बन रहा हो तब वह ग्रह मारक ही रहता है।
मारकग्र्हा भंगयोगाका भंगयोग
कइबार मारकग्रह सारकग्रह की द्रष्टी मे होने से और कीसी अन्य मारकग्रह की इस मारकग्रह द्रष्टीबल न दे रहा हो फिरभी मारकग्रह ने सारक ग्रह बनाने वाला
सारकग्रह खुद ही कीसी ओर मारकग्रह की द्रष्टीमे हो और उस पर अन्य कीसीभी सारकग्रह का बल न मिला रहा हो तब वह सारकग्रह खुद मारकग्रह बन जाता है। इस
संजोगोमे यह सारकग्रह अन्य मारकग्रह की द्रष्टी पाकर सारकग्रह बन नही पाता इसलिएमारकयोगभंगका भी भंग हो जाता है।
महत्वपूर्ण नियम
(1) 6वें, 8वें और 12वें भावों के स्वामी मारक ग्रह कहलाते हैं, लेकिन बृहस्पति को पाप भाव का स्वामी होने का दोष नहीं लगता। तो यह हमेशा एक सारकाग्रह के रूप में कार्य करता है और अच्छे परिणाम देता है।
(2) छठे (6वें), आठवें (8वें) और बारहवें (12वें) भाव का कारक ग्रह शनि है और इन तीनों भावों को अशुभ स्थान के रूप में जाना जाता है, इसलिए शनि हमेशा मारकग्रह के रूप में कार्य करता है और बुरे परिणाम देता है।
(3) मिथुन या कन्या लग्न में, यदि लग्नेश बुध पापी या नीच में है, तो शनि पापी और मंगल पापी के रूप में कार्य करता है। क्योंकि शनि और मंगल मारक नहीं बनाते।
(4) मिथुन या कन्या लग्न में, यदि लग्नेश बुध अशुभ या नीच में हो, तो शनि मारकग्रह और मंगल सरका के रूप में कार्य करता है। क्योंकि मंगल और शनि मारक नहीं हैं।
(5) अस्त का ग्रह सूर्य की स्थिति के अनुसार फल देते हैं। यदि सूर्य सारक ग्रह हो तो अस्त का सारकाग्रह बहुत अच्छा फल देगा और अस्त का मारकग्रह कम अशुभ फल देगा।
(6) अस्त के ग्रह सूर्य की स्थिति के अनुसार फल देते हैं। यदि सूर्य पापी है तो अस्त अशुभ ग्रह बहुत अशुभ फल देगा और अस्त का अशुभ ग्रह कम अच्छे परिणाम देगा।
(7) यदि सारकाग्रह को युति या द्रष्टि से सारकाग्रह से जोड़ा जाए, तो यह मजबूत हो जाता है, जबकि युति या द्रष्टि द्वारा मारकग्रह से संबंधित होने पर यह कमजोर हो जाता है। युति या दृष्टि द्वारा जब मारकग्रह को मारकग्रह से जोड़ा जाता है तो वह प्रबल हो जाता है। जब सारकग्रह का संबंध युति या दृष्टि से होता है तो वह कमजोर हो जाता है।
(8) बलशाली सारकग्रह बहुत ही बढिया फल देता है।
(9) बलशाली मारकग्रह बहुत ही अशुभफल देता है।
बलहिन मारकग्रह मध्यम अशुभफल देता है जब की निष्फल मारकग्रह अशुभफल दे नहि पाता ।
(10)अशुभ स्थान का मालिक बननेवाला मारकग्रह अशुभफल बहुत ज्यादा देता है। जब की शुभ स्थान का मालिक बननेवाला मारकग्रह अशुभ फल कम देता है।
1. मेष लग्न:-
बुध,शनि दुसरे स्थान मे हो और शनि की द्रष्टी से द्र्ष्टहो तब मारक बनते है। बृहस्पत्ति केवल दशवे स्थानमे ही मारक बनत है।
2. वृषभ लग्न:-
गुरु,शुक्र,और चंद्र मारक बनते है।
3. करक लग्न:-
शनि,बुध,शुक्र,सूर्य यदी पापग्रह के साथ संबंध मे हो तब मारका बनते है।
4. सिंह लग्न:-
शनि,शुक्र,बुध यदी शनि कए साथ हो तब वह मारक बन जाते अहि।
5. कन्या लग्न:-
गुरु ,चंद्र,शुक्र मारक होते है।
6. तुला लग्न:-
सूर्य,बुध मारक होते है।
7. वृश्विक लग्न:-
बुध,शुक्र,शनि मारक होते है।
8. घनु लग्न:-
चंद्र,शुक्र,शनि यदि शनि, सूर्य या बुध के साथ हो तब मारका होते है।
9. मकर लग्न:-
गुरु,मंगल,चंद्र मारक होते है।
10. कुंभ लग्न:-
गुरु,मंगल,चंद्र मारक होते है।
11. मिन लग्न:-
बुध,शनि,शुक्र,सूर्य एवम शुक्र मारक है लेकीन शनि प्रबल मारकहै।
12. लग्न या चतुर्थ अथवा नवम भाव के यह तीनो आठवे स्थान मे होने से मारक बनते है।
13. धनेश (द्वित्येश) और व्ययेश का परिवर्तन बन रहा हो तब वह मारक बन जाते है।
14. घनेश यदि बारवे या पह्ले भावमे हो तब मारक बन जाते है।
15. धनेशऔर व्ययेश दोनो मारकेश की द्रष्टीमे आने से वे दोनो मारक बन जाते है।
16. पंचमेश यदि छठ्ठे स्थानमे और नवमेश आठवे स्थानमे होत तब वह मारक बन जाते है।
17. पंचमेश और नवमेश दोनो पर मारक ग्रह की द्र्ष्टीहो तो वह मारक बन जाते है।
बाधक ग्रह
बाधकग्रह के बारेमे
परिभाषा: एक बाधा ग्रह का अर्थ है अमूक क्षेत्रों में बाधा
1. यदि चर राशी (मेष, कर्क, तुला, मकर) का यह लग्न हो तो लाभेश ग्रह को बधाक कहना चाहिए।.
2. यदि स्थिर राशि (वृषभ, सिंह, वृष, कुम्भ) के जातक का लग्न हो तो भाग्येश ग्रह बाधक होता है।
3. द्विस्वभाव राशि (मिथुन, कन्या, धन, मीन) यदि जातक का यह लग्न होता है, तो सप्तमेश ग्रह बधाक कहलाता है।
नियम:- 1. यदि कोइभी एक बाधक ग्रह की अवधी तक ही बाधा देता है जेसे की....
1.सूर्य =२२ वर्ष तक
2.चंद्र=२१ वर्ष तक
3. मंगल = २८ वर्ष तक
4. बुध = 32 वर्ष तक
5.बृहस्पति = 40 वर्ष तक
>6.शुक्र = 25 वर्ष तक
7.शनि = 37 वर्ष तक
इस प्रकार, उसके बाद वह ग्रह बाधा नहीं करता ।
नियम 2. बाधा डालने वाला ग्रह किसी भी तरह से मजबूत होने पर बाधक बन जाता है। कमजोर होने पर बाधक न जानना चाहिए
ग्रहों की दृष्टि
ग्रहों की दृष्टि
નોંધ:-
युति या ग्रह जिस भाव में विराजमान होते हैं, उस भाव से अधिक ग्रहों का प्रभाव देखा जाता है।
1. सामान्यतः सभी ग्रहों की सप्तम भाव में पूर्ण दृष्टि होती है
2. बृहस्पति के विशेष द्र्ष्टी 5वें और 9वें हैं
3. मंगल के विशेष द्र्ष्टी चौथे और आठवें हैं
2. शनि की विशेष दृष्टि तीसरी और दसवीं है
2. राहु-केतु के विशेष दृष्टि 5, 9 और 12 मे हैं
2. 5वें और 9वें भाव में सभी ग्रहों का प्रभाव 50% होता है
2. 4 और 8 वें स्थान पर सभी ग्रहों का प्रभाव 75% होता है
2. तीसरे और दसवें भाव में सभी ग्रहों का प्रभाव 25% होता है
द्द्ष्टी विचार
चंद्र और बुध यदि शुभ हों तो उनकी दृष्टि शुभ फल देती है।
मंगल की दृष्टि ऊर्जा में तनाव पैदा करती है।
गुरु की दृष्टि वृद्धी करना है। जिस व्यक्ति पर भाव या ग्रह की दृष्टि हो, उसे शुभता प्रदान करता है।
शुक्र की दृष्टि शुभ रहेगी।
शनि की दृष्टि क्षीणता का अर्थ है गति को धीमा करना और भावो को धीरे-धीरे नष्ट करना।
राहु – केतु की द्द्ष्टी भ्रमित करने वाली है। जिस भाव या ग्रह पर होती है उसको बिगाडती है।
नोंध:- अपनी राशी,उच्च राशी या मित्रराशीमा या फीर द्रष्टी संबंधो से शुभफल रहता है।
राशीओ की द्रष्ट
राशी की द्रष्टी
1.चर राशीओ की द्र्ष्टी स्थिर राशीओ पर होति है केवल पहली स्थिर राशी को छोडकर
2. स्थिर राशी की द्रष्टी चर राशीओ पर होति है केवल प्रथम चर राशी को छोडकर
3. द्विस्वभावराशी की द्रष्टी द्विस्वभाव को ही देखति है केवल अपनी प्रथम राशी को छोडकर
नोंध:-
जिस राशीमे ग्रह बेठा हो तब वह अन्य राशिस्थ बेठे हुवे ग्रह को देखता है एवम भावको देखता है।
निच राजभंग योग
निच राजयोग भंग
1. यदि निच ग्रह के साथ स्वगृही ग्रह हो तब।
2. यदि निच ग्रह के साथ कोइ उच्चग्रह हो तब।
3.यदि निच ग्रह पर स्वगृही ग्रह की द्रष्टी हो तब।
4. निच ग्रह मृत अवस्थामे हो तब।
5. यदि निच ग्रह अस्त हो तब ।
ग्रहो के बल के बारेमे
स्थानबल:-
यदि जन्मकुंडलीमे उच्च राशी या स्वराशी या फेर मित्रराशी ,त्रिकोणराशी मे ग्रह बेठता है तो वह स्थानबलप्राप्त करता है।
दिग्बल:-
प्रथम भावमे बुध और गुरु होते है।
चोथे भावमे चंद्र और शुक्र होते है।
सातवे भावमे केवल शनि होता है।
दशवे भावमे सूर्य और मंगल होते है।
इस तरह ग्रह दुग्बल कहे गये है।
कालबल:-
रात्रीका जन्म होने पर चंद्र,शनि और मंगल कालबली होते है।
दिनमे जन्म होने से सूर्य,बुध और शुक्रकालबली होते है।
जब की गूरु सदेव बलशाली रहते है।
नैसर्गीक काल :-
शनिसे मंगल, मंगलसे बुध,बुधसे गुरु, गुरुसे शुक्र, शुक्रसे चंद्र और चंद्रसे सूर्य बलशाली होतेहै।
कोन सबसे बलशाली बनता है उस मे यह खुब उपयोगी है।
चेष्टा बल:-
जब सूर्य माकरराशी से मिथुनराशी मे भ्रमण करता हो और इसी इसी राशीमे जन्म के समय चंद्रमा हो तब चेष्टाबल जाने
चंद्र के साथ मंगल,गुरु,बुध अथवा शनि इनमेसे कोइ एकग्रह हो तब चेष्टाबल बाने
<द्र्ष्टी बल:-
जन्म कुडंलीमे यदी कोइ ग्रह अपनी मित्रके साथे द्रष्टी मे रहता है तो उस ग्रह हो द्र्ष्टीबल मिलता है।
शून्य राशी विशे
शून्य राशी
1. प्रथमा की तिथी पर तुला और मकर राशीया शून्य राशी होती है।
2. दुज की तिथी पर धनु और मिन राशीया शून्य राशी होती है।
3. तिज की तिथी पर सिंह और मकर राशीया शून्य राशी होती है।
4. चतुर्थी की तिथी पर वृषभ और कुंभ राशीया शून्य राशी होती है।
5. पंचम की तिथी पर मिथुन और कन्या मकर राशीया शून्य राशी होती है।
6. छठ्ठ की तिथी पर मेष और सिंह राशीया शून्य राशी होती है।
7. सपतम की तिथी पर कर्क और धनु राशीया शून्य राशी होती है।
8.अष्टम की तिथी मिथुन पर कन्या और राशीया शून्य राशी होती है।
9. नवम की तिथी पर सिंह और वृश्विक राशीया शून्य राशी होती है।
10. दशम की तिथी पर सिंह और वृश्विक राशीया शून्य राशी होती है।
11. एकादशी की तिथी पर धनु और मिन राशीया शून्य राशी होती है।
12. द्वार्दशीकी तिथी पर तुला और मकर राशीया शून्य राशी होती है।
13. तेरश(त्रियोदशी)की तिथी पर वृषभ और सिंह राशीया शून्य राशी होती है।
14. चतुरदशी(चौदश) की तिथी पर मिथुन ,कन्या,धनु और मिन राशीया शून्य राशी होती है।
15. पुर्णीमा और अमासव्या की तिथी पर कोइ भी राशीया शून्य नही होती है।
नोंध:-
जिस भावमे यह राशिया होती है उस भाव के फल की कमी होती है या फला मिलने मे बहुत श्रम करना पडता है। वह
भावा के फल सरलतासे नही मिलते चाहे ग्रह क्यो सारी स्थतिमे भी न हो ।
राशी ज्ञान
राशी ज्ञान
राशीओ और उनके स्वामी
(1) मेषा और वृश्विक के स्वामी :- मंगल
(2) वृष और तुला राशि के स्वामी:-शुक्र
(2) मिथुन और कन्या राशि के स्वामी :- बुध
(4) धनु और मीन राशी के स्वामी:- बृहस्पति
(5)मकर और कुंभ राशि के स्वामी:- शनि
(6) कर्क राशि के स्वामी:-चंद्रमा
(7) सिंह राशि के स्वामी: सूर्य
तत्त्व/वर्ण/चर आदी/स्वभाव:
(1) अग्नि तत्त्व/क्षत्रिय:- मेष, सिंह, धन,
(2)पृथ्वी तत्व/वैश्य :-वृषभ, कन्या, मकर
(3)वायुत्तव/शूद्र :- मिथुन, तुला, कुम्भ
(4)जल तत्व/ब्राह्मण :- कर्क, वृष, मीन
< p>(1)चर/रजस :-मेष, कर्क, तुला, मकर
(2)स्थिर/तमस;-वृषभ, सिंह, वृष, कुंभ
(3) द्विस्वभाव/सात्विक :-मिथुन, कन्या, धन, मीन,
(1) शीर्षोदय राशियाँ :- सिंह, कन्या, तुला, वृष, कुम्भ
(2) पृष्टोदय राशीया :- मेष, वृष, धनु, मकर
(3) उभयचर चिह्न :- मिथुन, मीन
(1)पुरुष राशियां :-1.मेष, 3.मिथुन, 5.सिंह, 7.तुला, 9.धन, 11.कुंभ
(2) स्त्री राशियां :-2.वृषभ, 4.कर्क, 6.कन्या। 8. वृष, 10. मकर, 12. मीन
ग्रहो की अवस्थाए
सम राशी | अवस्थाए | विषम राशी |
24 अंश से 30 अंश तक | बाल्या अवस्था | 0 अंशा से 06 अंश तक |
18 अंश से 24 अंश तक | कुमार अवस्था | 06 अंश से 12 अंश तक |
12अंश से 18 अंश तक | युवा अवस्था | 12 अंश से 18 अंश तक |
06 अंश से 12 अंश तक | वृद्धा अवस्था | 18 अंशा से 24 अंश तक |
00 अंश से 06 अंश तक | मृत अवस्था | 24 अंश तक 30 अंश तक |
अब देखते उसके प्रभावके बारेमे
नियम:1-युवा अवस्था में एक ग्रह पूर्ण यानि 100% फल देता है
नियम: 2- कुमार अवस्था में एक ग्रह आधा यानी 50% फल देता है
नियम:3 - वृद्धावस्था का ग्रह देता है 75% फल यानी पोना
नियम.:4- बचपन में एक ग्रह एक चौथाई यानी 25% फल देता है
नियम:5- मृत अवस्था में ग्रह फल देने में प्रभावहिन होता है।
जाग्रत अवस्था के बारे में
जागुर्त ग्रह
नियम:1- स्वग्रह या उच्च राशि में जो ग्रह होता है उसे जागुर्त कहा जाता है और यह 100% फल देता है।
स्वप्नस्थ ग्रह
नियम: 1- जो ग्रह मित्र या सममित्र राशि में हो उसे स्वप्नस्थ कहा जाता है और यह 50% योगदान देता है
सुषुप्त ग्रह
नियम: 1- जो ग्रह शत्रुक्षेत्र या नीच राशि में हो उसे सुषुप्त कहते हैं और यह 0% फल देता है
दिप्तादि अवस्थाए
1.उज्ज्वल दीप्त ग्रह
नियम:1- जो ग्रह उच्च राशि में हो उसे दीप्त कहते हैं और यह 100% फल देता है
2.स्वस्थ ग्रह
नियम.:1- स्वराशी में जो ग्रह होता है उसे स्वपस्थ कहते हैं और यह 100% फल देता है
3.मुदित ग्रह
नियम:1- अधिमित्रराशी में जो ग्रह होता है उसे मुदित ग्रह कहा जाता है और यह 100% फल देता है
4.शांत ग्रह
नियम:1- मित्रराशी में स्थित ग्रह शांत कहलाता है और 50% फल देता है
5.दीन ग्रह
नियम:1- जो ग्रह समरशी में हो उसे दीन ग्रह कहा जाता है और यह 50% फल देता है
6.दुखी ग्रह
नियम: 1- जो ग्रह पाप ग्रह में है उसे दुखी कहा जाता है और यह कम फल देता है
7.खल ग्रह
नियम:1- जिस ग्रह पर अशुभ या उसकी राशि हो, उसे खल कहते हैं और कम फल देते हैं
8. क्रोधी ग्रह
नियम.:1- जो ग्रह वक्रता में होता है उसे क्रोधी और कम फल देने वाला ग्रह कहा जाता है।
लज्जितदी अवस्था के बारे में
1. लज्जित ग्रह
नियम.:1- वह ग्रह जो मित्रराशी, पुत्र राशि में हो और सूर्य/मंगल/शनि या राहु-केतु जैसे अशुभ ग्रहों के साथ हो, उसे लजजीत कहा जाता है
2. गर्वित ग्रह
नियम:1- स्वराशी, उच्चचरशी, मूलत्रिकोना में स्थित ग्रह को गरवितग्रह कहा जाता है
3.क्षुधित ग्रह
निमय:-1. जो ग्रह शत्रराशीमे ,शत्रु ग्रह की युति या द्रष्टी अथवा शनि की युति होनेपर क्षोधित कहलाता है।
4.तृषित ग्रह
नियम.:1- जो ग्रह जलतत्वराशी,शत्रुराशी से युक्त या द्र्ष्टी मे और अद्र्ष्ट हो तब वह तृषित ग्रह कहलाता है।
5.मुदित ग्रह
नियम 1- जो ग्रह मित्रराशी मे मित्र ग्रह के साथ या गुरु के साथ हो तब वो ग्रह मुदित कहलाता है।
6.क्षोभित ग्रह
नियम:1-जो ग्रह केवल सूर्य और पाप ग्रह से युक्त या शत्रु ग्रह की द्रष्टी मे हो तब वो ग्रह क्षोभित कहलाताहै।
शयनादि अवस्थाए
गणना:- जिस ग्रह में इस प्रकार की स्थिति का निर्धारण किया जाता है उस ग्रह की नक्षत्र संख्या की गणना उस नक्षत्र की अश्विनी से उस ग्रह की क्रमांक संख्या से गुणा करके उस ग्रह के भक्त नवांश से गुणा करने पर इष्ट घटिका को जोड़ने पर किया जाता है। जन्म का समय उस अंक में जिसमें चंद्रमा राशि में है।संख्या जन्म लग्न राशि का अंक जोड़ें। कुल संख्या को 12 से भाग देने पर शेषफल उस ग्रह की चालू अवस्था कहलाता है
अवस्था क्रम
(1) शान (2) उवेशन (3)नेत्रपानी(4) प्रकाश (5)गमन (6) आगमन (7)सभा (8) आगमन (9)भोजन(10) नृत्यालिप्सा (11)कौतुक (12) निद्रा
इस अवस्थाके ग्रह क्रम इस तहर से है
(1) सूर्य (2) चन्द्रमा (3) मंगल (4) बुध (5) बृहस्पति (6) शुक्र (7) शनि (8) राहु (9) केतु
अस्तग्रह के बारेमे
नियम ❶ यदि ग्रह सूर्य के साथ हो तब जिस ग्रह के अंश अधिक हो तो उसमेसे कम अंश के ग्रह के अंश घटाये।
नियम ❷ यदि ग्रह सूर्य से आगे के भाव मे हो तब सूर्य के ३०(30) अंश मे से बाद (निकाल) के आगे के भावमे रहेल ग्रह के अंश जोडे
नियम ❸ यदि ग्रह सूर्य के पीछे के भावमे हो तब उस ग्रह के अंशोको ३०(30) अंशमे से निकाले (बाद कर) के सूर्य के अंश
☞ આમ, अब दिए हुए नियमो को उपरोक्त नियमों की जाँच करें और निम्नलिखित की जाँच करें
2.यदि मंगल १७ अंशा के भितर या सम होने पर अस्त हो जाता है।
3.यदि बुध १४ अंश के भितर या सम (बराबर) होने पर अस्त होता है।
4.यदी गुरु ११ अंश के भितर या समान (बराबर) होने पर अस्त होता है।
5.यदि शुक्र ९ अंश के भितर या बराबर होने पर अस्त होता है।
6.यदि शनि १५ असंह के भितर या बाराबर हो तब अस्त होता है।
इस तरह ग्रह अस्त होते है।
नक्षत्र
नक्षत्र और उनके स्वामि कए बारेमे
2.भरणी.पू,फाल्गुनी,पू.षाढा =शुक्र
3.कृतिका,उ,फाल्गुनी,उ.षाढा = सूर्य
4.रोहिणी,हस्त,श्रवण =चंद्र
5. मृगशीर्ष,चित्रा,धनिष्ठा =मंगल
7. आद्रा,स्वाति,शततारा =राहु
8.पुनर्वसु,विशाखा,पू,भा,पद =गुरू
9. पुष्य,अनुराधा,उ.भा.पद =शनि
10.आश्लेषा,ज्येष्ठा,रेकति =बुध
अष्टक वर्ग
ग्रह दिए भावा स्थानसे गिननेसे शुभ बिंदु देते है उसकी सारणी |
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भाव स्थित ग्रह | भाव स्थाने शुभ बिंदु स्थान |
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नोंध---
ग्रह अपने अष्टकवर्ग के भितर रहनेवाले उप ग्रह जब गोचर मुख्य ग्रह के अंश मुजब फल अष्टक वर्ग मे देखा जाता है। बगल की तालिका में अष्टकवर्ग योग (कुल)फल के बारे में जानकारी दी गई है |
अष्टकवर्ग के अंश: कला – अंश : अंश - कला | अष्टक वर्गा के ग्रह क्रम | अष्टकवर्ग का यग(कुल) | नतीजा | |
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00:00 से 3:45 तक | शनिदेव | हबुत ही बुरा | ||
3:46 से 07:30 तक | गुरुदेव | बुरा | ||
07:31 से 11:15 तक | मंगलदेव | कम बुरा | ||
11:16 से 15:00 तक | सूर्यदेव | मिश्र | ||
15:01 से 18:45 तक | शुक्रदेव | कम अच्छा | ||
18:46 से 22: 30 तक | बुध देव | अच्छा | ||
22:31 से 26:15 तक | चंद्रदेव | बहुत अच्छा | ||
26:16 से 30:00 तक | लग्न | बहुत ही अच्छा / શ્રેષ્ઠ |
નોંધ---
अष्टक वर्गमे जिस जिस ग्रह ने एक बिंदु दिया हो उस उस समय वह गोचरग्रह फल देनेकी क्षमता रखता है. उ.दा. सूर्यके अष्टक वर्गमे सूर्य जब मकर मे गोचर(भ्रमण) करे और शनि ने बिंदु दिया हो हो तब शनिने सूर्य को फल देने देता है और यदी न दिया हो तब फल देने देता नही है। |
दैनिक फल निकालने के रीत
जन्म पत्रिका के माध्यम से दिन फल नीकालने के लिए....
नियम 1. जिस दिनका फल देखना हो उस दिनके गोचर(भ्रमण) ग्रह और उसके अंश –कला नो लिखे।
नियम 2.इसके बाद सभी ग्रह के जो भी ग्रहके अष्टकवर्गमे गोचर(भ्रमण) ग्रह जिस राशीमे भ्रमण करता हो उस राशी का अष्टकवर्गके योग लिखे।
नियम 3. फीर उसके बाद सभी जोभी ग्रह का अष्टकवर्गमे भ्रमण क्रनेवाला गोचर ग्रह जिस राशीमे हो उस राशी का सर्वाष्टकवर्ग का कुलयोग लिखे
नियम 4. ग्रह की कक्षा के अनुसार जो भी ग्रह गोचर ग्रहकेबिंदुमिला हो तो वह लिखे।
उदाहरण:- यदि गोचर ग्रह सूर्य मीन राशि में हो तो जन्म कुण्डली में अष्टक वर्ग या सर्वाष्ट वर्ग में दिए गए मीन राशि के योग (कुल योग) को देखकर दूसरे को जानने के लिए अष्टक वर्ग योग (कुल योग) न लें। गोचर ग्रह भी।अष्टक वर्ग वाले ग्रह की राशी का बिंदु (रेखा) लें।
अष्टक वर्ग योग का फल
14 से 20 बहुत खराब है
21 से 24 खराब है
25 से 27 कम खराब है
28 इतना मध्यम
29 या 30 थोड़ा बेहतर है
31 से 35 अच्छा है
36 से 42 बहुत अच्छा है
सर्वाष्टका वर्ग योग का फल
98 से 140 बहुत खराब है
141 से 168 फिर खराब
169 से 195 कम खराब है
196 इतना मध्यम
197 से 210 थोड़ा बेहतर है
211 से 245 अच्छा है
246 से 294 बहुत अच्छा है
ग्रह कक्षा के अनुसार फल
0 बहुत बुरा
1 बहुत बुरा
2 इतना कम बुरा
3 इतना मध्यम
4 तो थोड़ा बेहतर
5 बहुत अच्छा
6 बहुत अच्छा
7 सबसे अच्छा है
ग्रह कक्षा जानने के लिए
ग्रहा = कक्षा सारनी
शनि=00° से 03°45"
बृहस्पति=03°45" से 7°30"
मंगल=7°30" से 11°15"
सूर्य=11°15" से 15°00"
शुक्र=15°00" से 18°45"
बुध=18°45" से 22°30"
चंद्रमा=22°30" से 26°15"
लग्न=26°15" से 30°00"
ग्रह कक्षा के बारे में समझना
गोचर ग्रह ग्रह के भाग में शामिल है। ग्रह चार्ट में ग्रह के ग्रह को रखें जो ग्रह के भाग में शामिल है। ग्रह के ग्रह को पारगमन ग्रह के विपरीत रखें। इस ग्रह को पारगमन ग्रह के रूप में मानें। अब उस नक्षत्र का पता लगाएं जिसमें गोचर ग्रह अष्टक वर्ग में है और देखें कि गोचर ग्रह क्या बन गया है। उस बिंदु (रेखा) को लें जहां ये दोनों शामिल हैं। इस प्रकार, प्रत्येक पारगमन ग्रह के अलग-अलग राक्षस लेते हुए और सप्तक वर्ग को देखते हुए प्रत्येक ग्रह प्रत्येक ग्रह के सप्तक वर्ग को देखना आवश्यक बनाता है।.
सुदर्शन चक्र
सुदर्शन चक्र
इस सुदर्शन चक्र में लग्न कुंडली, चंद्र कुंडली और सूर्य कुंडली शामिल हैं
1 लग्न कुंडली
लग्न कुंडली मे सामेल सर्वाष्टक वर्ग के कुल योग के बिंदुओ जिसभावमे हो वो गिनिए
2 चंद्र कुंडली
चंद्र कुंदलीको लग्न कुंडली मानलि जिए
3 सूर्य कुंडली
लग्न कुंडलीमे सूर्य जिस राशीमेहो उसे लग्न कुंडली माना लिजिए
सुदर्शन चक्र बनाने की विधी
अब जो लग्न कुंडलीके राशी मे सर्वाष्टक वर्गमे जो भी बिदंदु मिले है उसके कुल योग के बिंदुओको सूर्य,चंद्र और लग्न कुंडलीके जिस राशी मे हो उस राशीमे लिखीए
फीर सूर्य के प्रथम भावमे चंद्र के प्रथम भावमे और लग्न के प्रथम भावमे आये हुए बिंदु के कुल योग करके ३ से भाग दे जो भी भागा फल मिला निकलता है
उसे प्रथम भावा मे लिखे। इस तरह सभी अन्य भावोमे करने से सुदर्शन चक्र बनता है।